ग्रीस और फ़्रांस के चुनावी नतीजों से एक बात स्पष्ट हो गई है कि आर्थिक संकट में फंसे यूरोपीय देशों में लोग सरकारी घाटे में कटौतियों के पक्ष में नहीं हैं.
यूरोप में आम लोगों के बीच में यह राय बंटी दिख रही है कि सरकारों को विकास का अधिक ध्यान रखना चाहिए ना कि खर्चों में कटौती कर अपने विशालकाय बजट घाटों को कम करने का प्रयास करना चाहिए.
पूरे यूरोप में राजनीति दो खेमों में बंटी हुई है. एक खेमा वो है जो सरकारी खर्चों में कटौती कर के पैसे बचाना चाहता है दूसरा खेमा वह है जिसकी प्राथमिकता विकास दर को बढ़ाना है ना की बजट घाटे को कम करना.
पर अगर विकासवादियों की तरफ़ पलड़ा झुका रहा है तो किस तरह की नीतियाँ सामने आ सकते हैं.
यहाँ कुछ अर्थशास्त्री विकास को बढ़ाने के लिए अपनी राय रख रहे हैं.
पाओला सुबाची, शोध निदेशक अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र, चैटैम हाउस.
विकास के एजेंडा का अर्थ है निकट भविष्य में विकास, लंबे समय में नहीं. लंबी अवधि के विकास के लिए कुछ मूलभूत बदलावों की ज़रूरत हैं जो कुछ देश कर रहे हैं.
त्वरित विकास के लिए, वैट जैसे करों में कटौती करना होगा जो मुझे बहुत ठीक नहीं लगता. अच्छा तो यह होता कि विकास लोगों की बढ़ी हुई आमदनी से आता.
मेरे हिसाब से त्वरित विकास के लिए सबसे ज़रूरी है लोगों का टूटा विश्वास जगाना. अभी हम केवल बचत और कटौती की बात कर रहे हैं जिससे लोग डरे हुए हैं और बाहर निकल कर कुछ भी नहीं कर रहे हैं. इसे बदलना होगा.
पिप्पा माल्म्ग्रेन, प्रिन्सिपालिस एसेट मैनेजमेंट
औद्योगिक देशों में दो तिहाई नौकरियाँ उन प्रतिष्ठानों से आती हैं जहाँ 50 से कम लोग काम करते हैं. सरकारें विकास नहीं पैदा कर सकतीं. केवल कंपनियां कर सकतीं हैं.
अगर आप वाकई विकास के एजेंडा को लागू करना चाहते हैं तो आपको कटौती कम करने की बात सोचना भी नहीं चाहिए. सरकारों को तत्काल बहुत सारे क्षेत्रों से बाहर आ जाना चाहिए और करों की दारो में कटौती करना चाहिए.
कुछ लोग कहेगें कि अगर आप करों में कमी करेगें तो सरकार अपने खर्चे कैसे चलाएगीं. लेकिन मेरे ख्याल से यह समाज कल्याणकारी राज्यों का अंत है. पश्चिमी यूरोप के देशों में सरकारें जिस तरह से चल रहीं हैं उस तरीके से चलती नहीं रह सकतीं.
दिक्कत यह है कि पश्चिमी यूरोप के देशों में से कोई समाज कल्याणकारी नीतियों को छोड़ना नहीं चाहता.
फिलिप लेग्रेन, यूरोपीय कमीशन के अध्यक्ष बरोसो के स्वतंत्र आर्थिक सलाहकार
एक अधिक प्रतिस्पर्धी मुद्रा स्वागतयोग्य बात होगी. जिस तरह से 2008 के दिनों में ब्रितानी पाउंड के दाम गिरने की वजह से ब्रिटेन का निर्यात बढ़ गया था उसी तरह से एक कमज़ोर यूरो समस्याग्रस्त देशों की मदद करेगा.
जिन देशों के पास ट्रेड सरप्लस या व्यापार अधिशेष है उनकी मुद्रा के अधिक दाम होने चाहिए. ठीक उसी तरह जिस तरह से चीन ने अपनी मुद्रा के दाम बढ़ने दिए हैं. इसका अर्थ होगा कि जर्मन लोगों के पास अधिक धन होगा जिससे वो ग्रीस में छुट्टियां मानाने के लिए खर्च कर सकेगें.
अगर व्यापारिक प्रतिष्ठान ऐसा नहीं करते हैं तो आय कर को यह काम करना होगा.
प्रोफ़ेसर जॉन वॉन रीनन, एलएसई के विकास आयोग के सह प्रमुख
यूरोपीय मतदाताओं ने कमखर्ची के मॉडल को मानने से इनकार कर दिया है और विकास के मॉडल की तरफ गए हैं.
हालाँकि यूरोपीय सरकारों के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जनता के ऊपर किए जाने वाले खर्चों में कुछ कमी करना होगा.
दूसरा लंबी दूरी के विकास के लिए नीतियों पर काम करना होगा. अच्छा माहौल बनाना होगा और चल रही सेवाओं का बेहतर प्रबंधन करना होगा.
मसलन शिक्षकों के काम को बेहतर ढंग से परखना होगा और उन्हें अच्छे काम के बेहतर इनाम देने होंगें.
साथ ही प्रवासियों से जुडी नीतियों को भी बेहतर करना होगा जिसकी वजह से विश्वविद्यालयों का नुकसान हो रहा है.
प्रोफ़ेसर चार्ल्स वयपोल्स्ज़, जेनेवा के ग्रेजुएट संस्थान के कार्यरत
दो सालों की बेतुकी कटौती के बाद आखिरकार राजनेताओं को महसूस हो रहा है कि लोग नाराज हैं. कटौती के प्रभावों से मंदी बढ़ती हैं कम नहीं होती.
लेकिन जिन्हें लगता है कि नई नीतियों से विकास आ जाएगा. आम लोगों के हाथों में निराशा ही हाथ लगेगी. जिन देशों की अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं हैं उन्हें बाज़ार से पैसा उगाहने में बड़ा कष्ट होगा.
जर्मनी जैसे वो देश जिनकी अर्थव्यवस्थाएं अच्छी हैं उन्हें महंगाई का सामना करना होगा. नीति निर्माता मूलभूत सुधार कर रहे हैं लेकिन इन सुधारों का कोई तत्काल फायदा नहीं होगा.
ज़रुरत यूरोज़ोन द्वारा क़र्ज़ लेने की है और फौरी रूप से करों में कटौती करने की है लेकिन जर्मनी की एंगेला मर्केल यह होने नहीं देंगीं इसलिए मुझे नहीं लगता, कुछ हो सकता है.
SOURCE:BBC HINDI
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